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Toggleरिपोर्ट :सागर और ज्वाला न्यूज।
अहोई अष्टमी व्रत हिंदू धर्म में एक महत्वपूर्ण पर्व है, जिसे विशेषकर माताएं अपने पुत्रों की लंबी आयु, सुख-समृद्धि और कल्याण के लिए करती हैं।
यह व्रत कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है, और इसे दीपावली के पहले आने वाले व्रतों में से एक माना जाता है। खासकर उत्तर भारत में इस व्रत का विशेष महत्व है। इस दिन माताएं अहोई माता की पूजा करती हैं और संतान की सुख-समृद्धि के लिए उपवास करती हैं।
अहोई अष्टमी व्रत का महत्व
अहोई अष्टमी व्रत का मुख्य उद्देश्य संतान की लंबी आयु और उनकी सुरक्षा की कामना करना है। कहा जाता है कि जो माताएं सच्चे मन से इस व्रत को करती हैं, उनकी संतानें दीर्घायु और सुखी रहती हैं। इस व्रत के दौरान महिलाएं अहोई माता की पूजा करती हैं, जो कि संतान की रक्षा करने वाली देवी मानी जाती हैं। यह व्रत केवल संतान वाली महिलाएं ही करती हैं, और इसे पुत्रवती स्त्रियों के लिए अत्यंत शुभ माना गया है।
अहोई अष्टमी व्रत की कथा
अहोई अष्टमी व्रत की कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं, जिनमें से एक कथा इस प्रकार है:
प्राचीन समय में एक महिला अपने बच्चों के लिए दीपावली की तैयारी कर रही थी। वह जंगल से मिट्टी लाने गई, जिससे वह अपने घर को सजाने के लिए खिलौने बना सके। मिट्टी खोदते समय गलती से उसके फावड़े से एक शिशु स्याह (साही का बच्चा) मर गया। इस घटना से वह महिला बहुत दुखी हुई और उसे लगा कि यह उसके लिए अशुभ होगा। शिशु स्याह की मृत्यु से संबंधित दोष को दूर करने के लिए वह महिला एक साधु से मिली। साधु ने उसे अहोई अष्टमी के दिन अहोई माता का व्रत करने की सलाह दी। उसने पूरी श्रद्धा के साथ यह व्रत किया और उसे संतान सुख प्राप्त हुआ। तब से यह व्रत संतान की दीर्घायु और कल्याण के लिए किया जाता है।
व्रत की पूजा विधि
1. व्रत की तैयारी: अहोई अष्टमी के दिन माताएं प्रातः काल जल्दी उठकर स्नान कर लेती हैं और व्रत का संकल्प लेती हैं। व्रत के दौरान महिलाएं जल तक ग्रहण नहीं करतीं और निर्जला व्रत करती हैं।
2. अहोई माता की स्थापना: महिलाएं दीवार पर अहोई माता का चित्र या प्रतीक बनाती हैं। इसमें सात पुत्रों वाली अहोई माता का चित्रण किया जाता है। कई महिलाएं अहोई माता की मूर्ति भी स्थापित करती हैं।
3. पूजन सामग्री: पूजा के लिए दूध, चावल, हलवा, पूजा की थाली, रोली, सिंदूर, कलश, पानी का लोटा, दीपक, धूप-दीप और कुछ मिठाई का प्रबंध किया जाता है।
4. पूजा का समय: अहोई अष्टमी की पूजा शाम के समय की जाती है। यह पूजन विशेष रूप से सूर्यास्त के बाद किया जाता है। महिलाएं अहोई माता के सामने दीप जलाकर, धूप-दीप से पूजा करती हैं।
5. कहानी सुनना: पूजा के दौरान अहोई अष्टमी की कथा सुनाई जाती है। कथा सुनने के बाद महिलाएं अहोई माता से अपने बच्चों की लंबी आयु और सुख-समृद्धि की कामना करती हैं।
6. सितारों का दर्शन: पूजा के बाद, महिलाएं रात में आसमान में तारे देखकर पूजा को संपन्न करती हैं। ऐसा माना जाता है कि तारे देखकर व्रत का समापन होता है, और इसके बाद महिलाएं जल ग्रहण कर सकती हैं।
अहोई अष्टमी के उपवास का महत्त्व
अहोई अष्टमी का उपवास कठिन होता है, क्योंकि यह निर्जला उपवास है। माताएं संतान की भलाई के लिए बिना जल के पूरा दिन व्रत करती हैं और रात को तारे देखने के बाद ही जल ग्रहण करती हैं। यह उपवास माताओं के लिए कठिन होते हुए भी संतान के प्रति उनके स्नेह और बलिदान का प्रतीक है।
अहोई अष्टमी के ज्योतिषीय महत्व
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, अहोई अष्टमी का व्रत विशेष रूप से चंद्रमा और मंगल ग्रह से संबंधित है। इस दिन चंद्रमा का विशेष पूजन किया जाता है क्योंकि चंद्रमा को माता का प्रतीक माना जाता है। इस दिन चंद्रमा की पूजा करके संतान के जीवन में आने वाली कठिनाइयों को दूर करने की मान्यता है। इसके साथ ही मंगल ग्रह को संतान से जुड़ा हुआ माना जाता है, और इस दिन की गई पूजा से संतान संबंधी परेशानियां दूर होती हैं।
अहोई अष्टमी और कृष्ण पक्ष का संबंध
अहोई अष्टमी का व्रत कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को किया जाता है, जो कि अमावस्या से आठ दिन पहले आता है। कृष्ण पक्ष का समय अंधकार और कठिनाइयों से जुड़ा हुआ होता है, इसलिए इस समय की गई पूजा का विशेष महत्व होता है। इसे विपरीत परिस्थितियों में भी संतान की सुरक्षा और उनके कल्याण के लिए किया जाता है।
व्रत का समापन और प्रसाद
पूजा के बाद अहोई माता को भोग अर्पित किया जाता है, जिसमें विशेष रूप से हलवा और पूड़ी का प्रसाद चढ़ाया जाता है। तारे देखने के बाद माताएं व्रत तोड़ती हैं और प्रसाद को पूरे परिवार के साथ बांटती हैं। प्रसाद के रूप में चढ़ाया गया भोजन शुद्ध और सात्विक होता है, जिसे परिवार के सभी सदस्य ग्रहण करते हैं।
व्रत का फल
अहोई अष्टमी व्रत करने से माताओं को यह विश्वास होता है कि उनकी संतान की लंबी उम्र, सुख-समृद्धि और स्वास्थ्य में सुधार होगा। इस व्रत से माता अहोई की कृपा से संतान के जीवन में आने वाली परेशानियां समाप्त हो जाती हैं।
अहोई अष्टमी व्रत का आध्यात्मिक पहलू
अहोई अष्टमी व्रत न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह माताओं के स्नेह और उनकी त्यागमयी भावना को भी प्रकट करता है। इस व्रत में माताएं अपनी संतान के लिए किसी भी प्रकार के कष्ट सहने को तैयार रहती हैं। यह उनके संतान के प्रति असीम प्रेम और उनकी भलाई की कामना का प्रतीक है।
समाज में व्रत का महत्व
समाज में अहोई अष्टमी का व्रत एकता और सामुदायिक भावना को भी प्रकट करता है। महिलाएं इस दिन एक साथ इकट्ठा होकर पूजा करती हैं, जिससे उनके बीच भाईचारा और स्नेह की भावना बढ़ती है। यह व्रत एक दूसरे के साथ खुशियां बांटने और समाज में सहयोग की भावना को बढ़ावा देता है।
अहोई अष्टमी व्रत के अन्य पहलू
कुछ क्षेत्रों में अहोई अष्टमी को अहोई आठे भी कहा जाता है। हालांकि इस व्रत को ज्यादातर माताएं करती हैं, लेकिन कुछ स्थानों पर पिता भी अपने बच्चों की दीर्घायु के लिए यह व्रत रखते हैं। व्रत की पौराणिक कथा, पूजा विधि और इसे करने की मान्यताओं में क्षेत्रीय विविधताएं भी देखने को मिलती हैं।
निष्कर्ष
अहोई अष्टमी व्रत भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो माताओं की संतान के प्रति असीम प्रेम और बलिदान की भावना को दर्शाता है। यह व्रत धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण होने के साथ-साथ समाज और परिवार के भीतर एकजुटता और स्नेह को बढ़ावा देता है।